गणगौर v/s पुष्टिमार्ग
राजस्थान में शैव-शाक्त राजाओं का आश्रय लेने से पूर्व पुष्टिमार्गीय सेवाप्रणाली में शिव-पार्वती (गण-गौर) मनाने की परंपरा नहीं थी।
उदाहरणतया, हमारे मांडवी घर के मूलपुरुष नि ली श्रीद्वारकानाथजी वि.सं.1735 लिखित सेवाविधि की पुस्तक में गनगौर का नामोल्लेख तक नहीं है। इसी तरह वस्त्र-श्रृंगार भी अधुना प्रचलित प्रकार से विपरीत छापा के धरने का ही उल्लेख है। तीज के दिन हरे छापा के वस्त्र तथा टिपारा के श्रृंगार होते थे।
बाद में "लौकिकत्वं वैदिकत्वं कापट्यात्" में कहे अनुसार लोकानुरोधवश इसका समावेश सेवाप्रणाली में किया गया। उसमे भी श्रीको चुंदड़ी के वस्त्र धराना और गुंजा पुआ आदि का भोग धरना इससे अधिक ओर कुछ नहीं। कीर्तन में गनगौर के अनुरूप पुष्टिमार्गीय लीलाभवना खोजली गई। जैसे : "नंदघरनि वृखभानघरनि मिल कहति सबन गनगौर मनाओ ... घूमर खेलो ...राधा गिरिधर लाड़ लड़ाओ... गूंजा पुआ बहु भोग धराओं...".
किंतु पुष्टिमार्ग के किसी भी मूल ग्रंथों में, वैष्णव वार्ताओं में या किसी भी घरकी सेवाप्रणाली में इन दिनों में शिवपार्वती का पूजन वैष्णवों को करना चाहिए ऐसा विधान नहीं है। क्यूंकी यह अन्याश्रय है।
हो सकता है कि स्मार्त राजाओं के भयसे किसी समय वल्लभकुल के घरों में गनगौर की प्रतिष्ठा और भगवतमहाप्रसाद से शिवपार्वती की पूजा की जाती होगी। वह उनकी उस समय मजबूरी होगी! किंतु आज, ऐसा कोई भय नही होने पर भी, सम्प्रदाय सिद्धांत से विपरीत जाकर गनगौर को पूजन करना और उसकी बधाई बांटना दुर्भाग्यपूर्ण है और गणेशचतुर्थी को गणेश पूजन तथा दीपावली पर लक्ष्मीपूजन की ही तरह पुष्टिमार्ग में अन्याश्रयापराध ही है।
गोस्वामी शरद
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