(वार्ताप्रसंग ४६ मों)
एक समें श्रीआचार्यजीमहाप्रभु उज्जेन पधारे सो ॥ तहाँ क्षिप्रा नदी हे ॥ ताके तीरउपर विराजे ॥ वह स्थल बहुत सुंदर हतो ॥ तहाँ आपके पास सब वैष्णव बेठे हते ॥ ओर आप संध्यावंदन करत हते ॥ ता समय वयारि चली ॥ तासों कहूत एक पीपरको पतोवा उडत चल्यो आयो ॥ वह पतोवा श्रीआचार्यजीमहाप्रभुनके चरणारविंद आगें आयकें परयो । तब ताको आप संध्यावंदन करिके आपनें हस्तकमलसों उठाय लियो । जहाँ आप संध्यावंदन कीए हते ॥ तहाँ जल पड्यो हतो ॥ ता जलसों वहाँ धरती भीजी हती ॥ तहाँ श्रीआचार्यजी अपनें श्रीहस्तसो वा पतोआकी डाँडी रोपी ॥ तब तत्काल
वाही समे वामें तें नवपल्लव पौवा निकसिये लगे । सो देखत देखत तत्काल पीपरको वृक्ष होय गयो ॥ सो जहाँ आप विराजे हते तहाँ धूप ही ॥ वहां पीपरकी छाया होय ॥
गई ॥ या प्रकार देवी जीवन उपर अनुग्रह करिके आप श्रीआचार्यजीनें अपनी ऐश्वर्यता प्रगट कीनी ॥ तातें सब जगतमें माहात्म्य प्रगट भयो ॥ जो देखो श्रीआचार्यजीमहाप्रभुनमें एसो, सामर्थ्य हे ॥ ये तो साक्षात् पूर्णपुरुषोत्तम है॥ सो देखि सब लोग केहेन लागे॥ जो यह कार्य मनुष्यसों तो न बनेंगो यतो ईश्वरकेई काम हें ॥ सो जहाँ जहाँ श्रीआचार्यजीकी बेठक हे॥ तहाँ तहाँ छोंकरके वृक्ष हें ॥ ओर यहाँ उज्जेनमें पीपरके नीचें श्रीआचार्यजीमहाप्रभुनकी बेठक सिद्ध भई । सो जब कबहूँ आप उज्जैन पधारते। तव वा पीपरके नीचें बेठकमें विराजते । सो वह आपके श्रीहस्तको लगायो पीपर नित्य हे॥
- निज वार्ता
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